जिसको जो-जो करना – उसको वो-वो- Hindi Kavita
जिसको जो-जो करना ,उसको वो-वो करने दो ,भारत को तो भइया ऐसे ही रहने दो |
क्या खाएं ,क्या ना खाएं ,क्या पहने ,क्या ना पहने ,क्या कुछ भी लिखें ,या जो मन में आये बोल दें.
अपने choice को चुनें या choose कर अपना choice बनाये .
बहुत confusion है भाई ,सामान्य से भी अति सामान्य….अरे यों कहो मूढ़ बनकर शांति से जीने में भी बहुत criticality आ गई है.
साला,जिंदगी न हुई ,कोई बीमारी हो गई …जिसको जो चाहो वो अपनी तरफ से इलाज बताये जा रहा है .
कभी सोचा ना था की “महत्वपूर्ण” और “अर्थपूर्ण ” चर्चाओ का केंद्र बिंदु “खाना-पीना” ,”उठाना-बैठना” ,”बोलना-सुनना” होगा.
इनमे भी विशेषज्ञता की जरूरत आन पड़ेगी .
कोई कहता है इस “भोज्य -पदार्थ ” पर प्रतिबन्ध उचित है तो कोई कहता है की ये संकीर्णता है …
खाना ना हुआ धर्म-संकट हो गया ..
कही कोई बुद्धजीवी “लाल-झंडा”लिए बोल उठा की ये तो गरीब के “प्रोटीन” का सस्ता स्रोत है अतः इस पर रोक गरीब विरोधी है (यह अलग बात है की उसे ये पता ना चला हो की यदि गरीब इस “सेक्युलर-खाने” का इतना अधिकता या प्रधानता से खाता या अपनी जीवन में अपनाता तो वो “कुपोषित ” ही क्यों होता )…
सभी बस आम जान की मनोबृति जाने बिना अपनी ” शेखी ” जताने में लगें हैं..ना कोई आंकड़ा ..ना आम जन के सोच की खबर… बस लगे हांकने ….
अरे भाई अब क्या ” थाली ” का prototype तैयार करवाओगे …क्या इसके लिए भी “रिटायर्ड लोगों का ” “नियामक संस्था बनेगा….नए नए नियम गढ़े जाएंगे …
जिसको जो खाने की श्र्द्धा है ,उसे वो खाने दो ना..भले वो “तुम्हारी” नज़र में अपनी” माता “को ही क्यों ना खा रहा हो..
भाई “तुम्हारे” ही आदि ग्रन्थ “जीवः जीवस्य भोजनम्” का राग अलापते नहीं थकते …और तुम्हारा “भूत” …काला नहीं उजली चमड़ी वाले ….आर्य भी तो…
छोडो….खुद की श्रद्धा दुसरो पे क्यों थोपना …
कोई कुछ भी पहने ,पहनने दो ना (चाहे दूसरों की प्राकृतिक ,नैसर्गिक testosteron , pogesteron …और ना चाहने पर भी बढ़ने वाले हार्मोन्स को बढाने दो ) ,वैसे भी प्रकृति की अवहेलना ,हनन तो हमारा “नैतिक” अधिकार ही बन गया है..
कोई शादी करे ना करे या फिर बिना शादी किये या करने के बाद भी और भी “कुछ -कुछ ” भी करना चाहे तो क्यों रोकना ….
घर की खेती है -तुम्हे क्या पड़ी है ..
हमारे पूर्वज “मनु” और “सतरूपा” ..अरे अंग्रेजीदां भाईलोग ….”adam और eve ” ने किसकी सुनी थी …वे भी तो अपनी मन की कर गए और फैला गए हरी भरी धरती पर “हम” जैसा “रायता” …
यार..ये क्या बात हुई ….मर्जी ना हुई तानाशाही हो गयी..आजादी से बात्ततमीजी आ गयी और सदाचार ना हुआ ठिकेदारी मिल गयी …..
खैर ,जो भी हो “स्वंतंत्रता ” तो अनिवार्य है पर कहीं ये “निरंकुशता” की ओर तो नहीं चली …
सिविल का छात्र हूँ सो “युक्ति-युक्ति निर्बन्धन ” (reasonable -restriction ) की पैरवी तो करूँगा ही …
पर जनता हु लोकतंत्र है…sorry हमारा तो अति-लोकतंत्र है इसमें सामंजस्य कठिन है…भाई vote भी तो चाहिए..
अतः भारतीय बने रहना ही लाभप्रद है …”हठी के दाँत खाने के और दिखाने के और ”
शायद नीति-निर्माता भी यही करें –ढुल-मूल हो कर ..वैसे इस मामले में जरूरत है अन्यथा उनकी आदत भी यही है..
कोरी जिरह होती रहे ..हमें क्या ..हम तो बोलेंगे कुछ ..करेंगे कुछ..
जिसको जो करना है करे …जिसको जो कहना है कहने दो …भारत को तो भइया बुद्धजीवी ,मॉडर्न,western प्रेरित ,संभ्रांत होकर भी …ऐसे ही रहने दो …..
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